हिमालय की गोद से

हिमालय  की  गोद  से
बहुत खुबसूरत है आशियाना मेरा ,है यही स्वर्ग मेरा,मेरु मुलुक मेरु देश

Thursday, May 5, 2011

गढ़वाली कबिता : लाटू देबता




झूठा सच ,
खत्याँ बचन ,
बिस्ग्यां अश्धरा ,
खयीं सौं करार ,
और कुछ सौ एक रुपया उधार ,
बस इत्गा ही छाई वेकु मोल
जै खुण लोग लाटू बोल्दा छाई ,
जै थेय कुई बी घच्का सकदु छाई ,
कुई बी खैड्या सकदु छाई ,
घंट्याई सकदु छाई ,
थपडयाई सकदु छाई ,
अट्गायी और उन्दू लमडाई सकदु छाई ,
निर्भगी स्यार पुंगडौं मा म्वाल ध्वल्दा -ध्वल्दा ,
सरया गौं का खाली भांडा भौरदा -भौरदा ,
लोगों का ठंगरा -फटला सरदा -सरदा ,
घास -लखुडौं का बिठ्गा ल्यान्दा -ल्यान्दा ,
और ब्यो -कारिज मा जुठा भांडा मुज्यान्दा -मुज्यान्दा ,
ब्याली अचाणचक से सब्युन थेय छोडिकी चली ग्या,
सदनी खुण ,
बिचरल ना कब्भि कै की शिकैत काई,
ना कब्भि कै खुण बौन्ला बिटायी,
ना  कब्भि कै खुण आँखा घुराई ,
और ना कब्भि कै की कुई चीज़ लुकाई ,
बस ध्वाला छीं त सदनी ,
द्वी बूंदा अप्डी लाचारी का,
अप्डी मज़बूरी का,
सुरुक -सुरुक,
टुप- टुप
यखुल्या -यखुली,
पिणु राई नीमा की सी कूला,
सार लग्युं राई उन्ह द्वी मीठा बचनो का,
जू नि व्हेय साका ,
कब्भि वेका अपणा,
आज सरया गौं का मुख फर चमक्ताल सी प्वड़ी चा ,
कुई बुनू चा बिचारु जड्डल म्वार ,
कुई बुनू चा भूखल ,
सब्हियों खुण सोच प्व़ाड़याँ छीं अफ- अफु खुण ,
और बोलंण लग्यां छीं एक दुसर मा
 हे राम धाईं  - क्या म्यालु नौनु छाई
बिचारु लाटू देबता व्हेय ग्याई !
बिचारु लाटू देबता व्हेय ग्याई !
बिचारु लाटू देबता व्हेय ग्याई !

रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ( सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार सुरक्षित,५-४-११)

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