हिमालय की गोद से

हिमालय  की  गोद  से
बहुत खुबसूरत है आशियाना मेरा ,है यही स्वर्ग मेरा,मेरु मुलुक मेरु देश

Thursday, November 11, 2010

गढ़वाली कविता : खैरी का बिठगा

तेरी पीड़ा का बिठगा सदनी तिल्ल ही उठयें
कष्ट,
दुःख- दर्द जत्गा भी छाई तिल्ली सहैं
स्यैंती पाली जू करी बड़ा तिल अपडा
भूल गयें स्येद वू भी त्यारा दुखड़ा
 

त्यारू  चौमस्या प्यार,त्यारू बस्गल्य़ा उल्यार 
त्यारा थोल -म्याला ,त्यारा तीज त्यौहार
कन बिसरी टप्प, जाकी प्रदेशो मा पहाड़ पार
छोडिकी हे स्वर्ग त्वे थेय,झणी जैका सहारा फर
सुनसान छी आज त्येरी डांडी- काँठी
उं फर शान ना बाच
रौल्यूं मा एनं पवड्यीं  झमाक
जन्न छलेए सी ग्ये होंला
मिल सुण घुगती भी नि आंदी उं पुंगडौं मा अब
जख नि खप्प साका हैल और निसुड़ा तुम से
ग्विराल भी रैएन्द रुन्णु दिन भर
नि हयेन्स्दा नौंना- बाला वेय दगडी अब 
मुल-मुल
चल ग्यीं सब प्रदेशो मा व्हेय के ज्वान
खलियाणं भी अब नि रै  पहली जन्न चुग्ल्यैर
स्यार- पुंगडा भी छी उकताणं लग्याँ
और बल्द भी 
छी जलकणा हैल देखि की बल
गदेरा  भी
छी बिस्गणा बल  यकुलांस मा सयैद
और पंदेरा भी
छी रुणा टूप- टूप यखुली यखुली
एँसू का साल चखुला भी नि बुलणा
छी "काफल पाको "
बाटू भी बिरिडी ग्या गौं कु रस्ता,तुम जन्नी अब
डाली - बोटी भी बणी
छी जम -ख़म मिल सुण
फूल -पत्तौं फर भी नि रै मौल्यार पैली जन्न  
और घार गौं ,य राँ धौं
व्हेय ग्यीं बोल्या सी बल यकुलांस म़ा तुम बिगैर
लिणा
छी आखरि सांस यकुलांस मा
लिणा छी आखरि सांस यकुलांस मा

रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी (सर्वाधिकार -सुरक्षित,दिनाक २९ -१० -१० )

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